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Thursday, September 8, 2016

कभी-कभी मेरे मन में

कभी-कभी मेरे मन में तुम याद आती हो ,
मुझे लगता है कि तुम बस यहीं कहीं पर हो।
जहाँ के लोग तो कहते हैं जो गया,वो गया,
मगर मुझे तो यही लगता कि तुम यहीं पर हो।
मुझे तो याद  है जब हम मिले थे पहली दफा ,
सफर सुहाना था जब हम साथ-साथ रहे।
सुहागरात थी घूंघट के ओट में तुम थी ,
दबी-दबी सी निगाहें झुकी-झुकी सी थी।
वो था मंजर सुखन-सुखनवर का ,
दबा के ओठ को  सिसकी थी मगर तुम चुप थी।
तुम्हारे मरमरी  हाथों की छुवन की वो कशिश ,
उफ़ ! वल्लाह , वो क्या था मंजर,वो क्या था लम्हा।
चांदनी रात में सब स्वप्न हकीकत थे वहां ,
कोई पोशीदगी नहीं थी सब कुछ था खुला ।


-उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

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