यह अँधेरा , दृष्टियों का,
दृष्टिमय अंधे बने हम।
काट चुटकी-देश हित में ,
आहूत कर सब ,सब सभी।
वह बताएगा की कितना ,
सांस लेना है तुम्हे।
वह सिखाएगा की कितना ,
दूर चलना है तुम्हें।
यारों वह तो ,
कल्पना में जी रहा।
और हमको सी रहा।
माना यारों लोग कुछ हैं ,
जिनका निज हित मान है।
पर उन्हीं -कुछ लोग चलते ,
हम पिसें-क्या धर्म है?
कर्म से बनता है इंसा ,
कर्म ही सब कुछ यहाँ।
फिर बताओ ,दण्ड कैसा ,
बिन किये हम भुगतते।
सरफ़रोशी तमन्ना ,
तुम बताओ,सब में है।
पर सिखाता वो हमे है ,
देश प्रेमी तुम बनो।
भावना की तूलिका से-
भाव को वह बांधकर ,
क्या करेगा -पता तो हो ,
हम भी तो जनतंत्र हैं ? (शेष कल )
उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
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