भौतिकतावादी युग में तो, बस अर्थो का औचित्य बढ़ा।
उसी अर्थ पर नाके बंदी, क्या होगा क्या रोग चढ़ा ?
बिना रोग के रोगी बनकर, जान संख्या कुछ कम होगी।
पैसा-पैसा हाय यह पैसा, जीवन का हर्षित पल है।
बारे कानूनों के विशारद, तूने कैसा रच डाला।
थाती-वाती कुनबा को तो, तोड़-तोड़ मरोड़ डाला।
अरे समझ तू ओ निर्मोही, भारत संचित देश रहा।
दूजे के लिहाफ पर तूने, अपना धर्म गंवा डाला।
क्या-क्या परिवर्तन कर लेगा, निहित स्वार्थ का पुतला तू।
जो भी शपथ पहल खायी थी, उसको तूने धो डाला।
जनता को तू मुर्ख समझ कर,नयी परंपरा डाल रहा।
खेले, बिहंसे, ख़ुशी चैन से, कहा रहें जनता, बाला। (शेष कल.......... )
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