कुछ सपने जो बिखर रहे हैं ,उन पर क्या प्रलाप करें।
एक ही बार में चौदह गुना ,लोभ किया तो अब झेलो।
वापस लौटो उसी भूमि पर ,जो कि हमारी संस्कृति थी।
प्रेम प्यार से जग में रहकर , सब प्राणी से प्रेम करो।
द्वेष भाव 'औ' छल प्रपंच सब ,कूड़ों में तुरंत फेंको।
प्रतिशोध का भाव त्याग कर ,कुछ तो संयत हो जाओ।
वरना युग की धरा में तो ,नहीं-नहीं बच पाओगे।
जो भी हुआ 'औ' हो रहा ,उसकी बारीकी पकड़ो।
बहुत समाया हो जायेगा ,तो क्या लेकर जाओगे।
सरे मनुज बंधु हैं अपने, उनका भी कुछ सुध-बुध लो।
नाहक झोली को भारी कर ,गल औ कण्ठ सुखाते क्यों ?
जीवन की समतल भूमि पर ,समतल भाव का प्रकटन हो।
सुख 'औ' चैन मिले तुमको भी ,उनको राहत मिले सदा?
उसी धुरी पर रहना सीखो ,जीवन का सारा सुख लो।
दो रोटी से क्षुधा भरेगी ,नाहक अधिक मिले क्यों होते ?
आपस में सब मिल-जुल कर के ,जीवन देश का ध्यान धरो।
आगे बढो , उन्हें बढ़ने दो ,यही परस्पर अपनाओ।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव
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