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Sunday, November 27, 2016

यह अँधेरा ,दृष्टियों का-4

     यह अँधेरा ,दृष्टियों का ,
     दृष्टिमय अंधे बने हम।

बन्धु बाजी है उसी की ,
वह बना बाजीगर यहाँ।
वह ही जीते ,वह ही रीते ,
हम महज एक पात्र हैं।
सिलवटें बिस्तर की बन कर ,
कब तलक हम मौन हैं ?
युग जो आया-देखते हम,
बन्द होते काम को।
पर नहीं टस से मस है ,
वह बना अविराम है।
देखते हैं-दृष्टि उसकी ,
कुछ बहुत ,कुछ ठीक है।
पर मीमांसक जानते हैं ,
रास्ता उस डोर की।
वह प्रमाणित कह रहे हैं-
बात तो कुछ असमझ।
देखना है-दृष्टि उसकी ,
है कहाँ ,कैसे करेगा।
समय के ही हाट में ,
सब मौन हैं।
देखना है -कौन सी,
बाजीगरी वह कर रहा।
अब बताएगा समय ही ,
बात उसकी क्या रही ?
अब सिखाएगा-समय ही ,
काम कितना ठीक है।
देखना है जोर कितना ,
बात में , क्या दम है उसके ?


उमेश चंद्र श्रीवास्तव-  



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