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Sunday, November 6, 2016

डम-डम-डम डमरू बाजे

डम-डम-डम डमरू बाजे डम-डम-डम।
मंचों पर नेता है नाचें ,
आवाजों में खनक नहीं है।
 चिल्लाहट और नारे हैं।
लोकतंत्र के अजब पहरुए ,
तेरा कैसा तंत्र बना ?
कहते हो -जब हम आएंगे ,
नंबर वन प्रदेश बनेगा।
स्वार्थी पुतले , ओ नेताओं ,
मुख से तो -समवेत रहो।
झूठी वाणी ,झूठे वादे ,
जनता मुर्ख नहीं होती।
माना जनता सदियों से ही ,
सोती 'औ' बधिर बानी।
पर तेरा क्या फर्ज है पुरुषों ,
पुरुषोचित कुछ कर्म करो।
कैसे आये - तुम गलियों से ,
सड़कों पर मत नृत्य करो।
माना तेरा कुम्भ है आया ,
झूमो,नाचो, मस्ती में ,
दम्भी बन कर -तुम मंचों पर ,
जनता को भरमाते क्यों ?
कौन सत्य है -जो तुम कहते ,
असत्यों के पुतले तुम।
लोकतंत्र की मर्यादा को-
तार-तार, खंडित करते।
अपना-अपना कुनबा भरते ,
अपनी पार्टी का गुणगान।
अपने मुख से अपनी करनी ,
दूजे की भी -तुम सुन लो।
वह मजलूम -खड़ा कोने में ,
फटेहाल-जो सुनता है।
उसको पीछे ,क्यों करते हो ?
आगे -उसको कर, बोलो।
जनता भीतर -जो आकांक्षाएं ,
उसका कुछ परिमार्जन हो।
वार्ना जीतो ,कुर्सी पकड़ो ,
भ्रमण करो ,तुम जी भर के।
फूलों का गलमाल पहन कर,
मंचों पर बस इतराओ। (आगे फिर कभी... )  


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -












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