month vise

Saturday, November 5, 2016

कुछ पीड़ाएँ प्रबल हो गयीं

कुछ पीड़ाएँ प्रबल हो गयीं ,
तो मैंने कुछ गीत लिखे। 
गीतों में सरगम कुछ चाहे ,
हो भी न हो फिर भी तुम। 
सुनो हमारे इन गीतों में ,
प्रेमी का मनुहार नहीं। 
नहीं छंद है इसमें कोई ,
अलंकार की बात सही। 
मगर मैं लिखना चाहूँ ऐसा ,
गीतों में मानवता हो। 
मानव मन में दम्भ न कोई ,
बस करुणा की बातें हों। 
वह जो सड़क तरफ कोने पर ,
घिघियाति बैठी है-जो। 
नहीं मांगती पूँजी,दौलत ,
भिक्षा दे दो तुम उसको कुछ। 
क्या सब हो गयी इतिवृत्ति अब ?
नहीं मनुज तुम, नहीं उसे दो ,
भिक्षा ,केवल काम दो। 
फिर देखो वह बबुनी बनकर ,
नाम करेगी अपना भी। 
और एक नागरिक जुड़ेगा,
भारत का जो सपना है। 
हम सब एक समान बनेंगे ,
गर इस हित-हम सोचें सब। 
यही बात कहानी है केवल ,
यही के कारन गीत लिखा। 
       कुछ पीड़ाएँ प्रबल हो गयीं ,
       तो मैंने कुछ गीत लिखे।

 

उमेश चंद्र श्रीवास्तव -






No comments:

Post a Comment

काव्य रस का मैं पुरुष हूँ

A poem of Umesh Srivastava काव्य रस का मैं पुरुष हूँ गीत गाने आ गया | खो रही जो बात मैं उसको बताने आ गया | रात चंदा ने चकोरी से कहा तुम जान ...