कुछ पीड़ाएँ प्रबल हो गयीं ,
तो मैंने कुछ गीत लिखे।
गीतों में सरगम कुछ चाहे ,
हो भी न हो फिर भी तुम।
सुनो हमारे इन गीतों में ,
प्रेमी का मनुहार नहीं।
नहीं छंद है इसमें कोई ,
अलंकार की बात सही।
मगर मैं लिखना चाहूँ ऐसा ,
गीतों में मानवता हो।
मानव मन में दम्भ न कोई ,
बस करुणा की बातें हों।
वह जो सड़क तरफ कोने पर ,
घिघियाति बैठी है-जो।
नहीं मांगती पूँजी,दौलत ,
भिक्षा दे दो तुम उसको कुछ।
क्या सब हो गयी इतिवृत्ति अब ?
नहीं मनुज तुम, नहीं उसे दो ,
भिक्षा ,केवल काम दो।
फिर देखो वह बबुनी बनकर ,
नाम करेगी अपना भी।
और एक नागरिक जुड़ेगा,
भारत का जो सपना है।
हम सब एक समान बनेंगे ,
गर इस हित-हम सोचें सब।
यही बात कहानी है केवल ,
यही के कारन गीत लिखा।
कुछ पीड़ाएँ प्रबल हो गयीं ,
तो मैंने कुछ गीत लिखे।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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