हमे चाहिये कुछ नहीं तुमसे ,
तुम जो चाहो कहो, करो।
हम सब बने निरीह तभी तक ,
जब तक सब्र की सीमा होगी।
सब्र जो टूटा हम जन-मन का ,
तब तुम झेल नहीं पाओगे।
दुनियावी के चक्र चला कर ,
किसका हित तुम साध रहे हो।
मूक बने हम दर्शक कब तक ,
आखिर अंत यहीं आना है।
माना सत्य आवरण अच्छा ,
जो कहता है निज हित दर्शन।
जरा चलो मैदान में आओ ,
कैसे क्या-क्या जग में होता।
पकड़ के कुर्सी ऐंठ रहे हो ,
कैसे आये, खर्चा कर के।
पाक-साफ की ड्रामेबाजी ,
नही चलेगी ,बने प्रदर्शक।
हल्ला बोलो ,सत्य बातओ ,
नीयत निज स्पष्ट करो।
क्या तुम सब कुछ ठप्प कराके,
तब आओगे आँसू ढोने।
जनता कितना साथ तुम्हारा ,
देगी तुमको पता चलेगा।
बुद्ध-शुद्ध में बने हुंकारी ,
जनता में जो-जो है बोला।
अब तो भाई सत्य बता दो ,
जनता को क्यों रगड़ रहे हो।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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