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Sunday, November 20, 2016

हमे चाहिये कुछ नहीं तुमसे

हमे चाहिये कुछ नहीं तुमसे ,
तुम जो चाहो कहो, करो। 
हम सब बने निरीह तभी तक ,
जब तक सब्र की सीमा होगी। 

सब्र जो टूटा हम जन-मन का ,
तब तुम झेल नहीं पाओगे। 
दुनियावी के चक्र चला कर ,
किसका हित तुम साध रहे हो। 

मूक बने हम दर्शक कब तक ,
आखिर अंत यहीं आना है। 
माना सत्य आवरण अच्छा ,
जो कहता है निज हित दर्शन।

जरा चलो मैदान में आओ ,
कैसे क्या-क्या जग में होता। 
पकड़ के कुर्सी ऐंठ रहे हो ,
कैसे आये, खर्चा कर के। 

पाक-साफ की ड्रामेबाजी ,
नही चलेगी ,बने प्रदर्शक। 
हल्ला बोलो ,सत्य बातओ ,
नीयत निज स्पष्ट करो। 

क्या तुम सब कुछ ठप्प कराके,
तब आओगे आँसू ढोने। 
जनता कितना साथ तुम्हारा ,
देगी तुमको पता चलेगा। 

बुद्ध-शुद्ध में बने हुंकारी ,
जनता में जो-जो है बोला। 
अब तो भाई सत्य बता दो ,
जनता को क्यों रगड़ रहे हो। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -






 

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