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Thursday, November 24, 2016

यह अँधेरा दृष्टियों का -3

        यह अँधेरा दृष्टियों का ,
        दृष्टिमय अंधे बने हम।

दण्ड देना ,फंड देना ,
कार्य का एक माप है।
क्या सभी-सब माप पर ,
उसको भरोसा अब नहीं?
क्या वही-एक मात्र चिंतक ?
बाकी सब बेकार हैं।
इस अकेले पन में यारों ,
कौन उसके साथ है।
क्या कहें क्या न कहें ?
उसने ऐसे आवरण में ,
डाल सब को मथ दिया।
चाह करके भी सभी ,
बात एक ही कर रहे।
काम अच्छा, पर, परंतु ,
लेकिनो में झोल है।
बस इसी एक शब्द आगे ,
सब चुप ,खामोश हैं।
यारों लगता-शब्द का -
कोई चितेरक़ आ गया।
जो हमारे रक्त को ,
उबाल से ठहरा गया।
हमे जो भी कह रहा वह ,
कर रहे चुप-चाप हम ?
वह बताता-वह सुनाता ,
जैसे कोई देव हो।
पर हमारे धर्म में भी ,
देवता को बोलते।
क्या किया ,कैसे किया है ,
हम उसे भी हैं खोलते ?
पर वहां-हम कह रहे क्या ?
यह समझ की बात है।
उसके मीमांसक हमें तो,
जो कहा ,जो भी लिखा है ,
टोकते 'औ' खोलते।
वह बताते-यह सही है ,
वह नहीं, लगता सही।
सप्रमाणित तथ्य देकर ,
वह हमें सब बोलते।
पर यहाँ-हम क्या कहें ?
किससे कहें ,सब मौन हैं।
वह बताएगा-हमे अब ,
कौन हो ,तुम कौन हो !             (शेष कल )





उमेश चंद्र श्रीवास्तव-




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