उज्ज्वल धार जमुन धारा की ,
नाविक नाव चलते हैं।
हम सब बिहसे बैठ वहां पर -
जमुन ढंग अवलोकित कर ,
मन में तरह-तरह-भावों को,
जुगती वासंती रचते।
तभी तटों के तल ढलान से ,
एक युवक-युवती निकले ,
अलसायी आँखों में समतल ,
प्रेम ,ख़ुशी के रस झलमल ,
लगता दोनों-इस प्रकृति के ,
खुमारी से मिले ,सम्भले।
वक्त समय की हरकत पढ़ के ,
थोड़े में ही निपट गए।
अंतस का संचित रस कुछ तो ,
दोनों ने भोगे ,सोखे।
अधरावली पे चटक मनोहर ,
दन्त गड़े पन उभर रहे।
रक्तिम कुछ-कुछ अधर पुटों में ,
लालिम हलकी छिटकी थी।
सब तो नहीं-मगर कुछ परखी ,
बिम्ब देख ,यह समझ गए।
जीवन उमरित कोलाहल में ,
सिमटे वे ,विलग भये।
अब तो प्रेम रहा है दैहिक ,
अब वह प्रेम कहाँ दिखता।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -