poem by Umesh chandra srivastava
आज फिर शाम ढलने को लो गयी ,
मन का यूंहीं मचलना गज़ब ढा गया।
मुखड़े पे कुछ शिकन ,कुछ उदासी वह पन ,
वो तो आये नहीं बस गज़ब ढा गया।
आ के कहती सहेली ज़रा सब्र से ,
उसका यह ही तो कहना गज़ब ढा गया।
बात करते वह रोज़ - आज ही आएंगे ,
सांझ सूखे का पड़ना गज़ब ढा गया।
मुस्कुराती रही बाल बच्चों के संग ,
सुत का पूछा यह जाना गज़ब ढा गया।
रोज़ कहते पिता बस अभी आ गये ,
माँ आंसूं छलकना गज़ब ढा गया।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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