poem by Umesh chandra srivastava
गर्मी की यह प्रचंड रवायत ,
क्या तुमको यह मालूम था।
धरती का यह दहकन होना ,
और हवा में गर्म सा झोका।
लोगों का फिर भी यह कहना,
क्या तुमको यह मालूम था।
दिन दहाड़े बरबस प्रेमी ,
युगलों का गर्मी से तपना।
और बहारें मन में उठना ,
क्या तुमको यह मालूम था।
दिवस पहर का बोझिल होना ,
लोगों का तर-तर कर बहना।
बहना का भाई से कहना ,
क्या तुमको यह मालूम था।
प्रकृति का यह रुख परिवर्तन ,
पर्वत पर बर्फों का पिघलना।
और मही का तपती 'उहं'पन ,
क्या तुमको यह मालूम था।
गर्मी की यह प्रचंड रवायत ,
क्या तुमको यह मालूम था।
धरती का यह दहकन होना ,
और हवा में गर्म सा झोका।
लोगों का फिर भी यह कहना,
क्या तुमको यह मालूम था।
दिन दहाड़े बरबस प्रेमी ,
युगलों का गर्मी से तपना।
और बहारें मन में उठना ,
क्या तुमको यह मालूम था।
दिवस पहर का बोझिल होना ,
लोगों का तर-तर कर बहना।
बहना का भाई से कहना ,
क्या तुमको यह मालूम था।
प्रकृति का यह रुख परिवर्तन ,
पर्वत पर बर्फों का पिघलना।
और मही का तपती 'उहं'पन ,
क्या तुमको यह मालूम था।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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