poem by Umesh chandra srivastava
खजुराहो में चित्र उभरते ,
ग्रीक मूर्तियां ,फ्रेंच कला।
निर्वसनाएं स्थापित करतीं ,
मानव तन की उत्स कला।
कभी-कभी विभीषिका अंकित ,
कभी यौन जीवन सन्दर्भ।
सीधा शब्द प्रयोग यहां पर ,
शालीनता से हुआ परे।
क्योंकि यहाँ पे -
उन अनुभव का ,
सतही रूप उभरता है।
सम्प्रेषण का भाव-अर्थ कुछ ,
बोझिल-बोझिल लगता है।
मन पर कम ,मस्तिष्क पर ज्यादा ,
बोझ ज़रा यह देता है।
आज की जो भी विकसित अकविता ,
सैद्धान्तिक ,व्यवहारिक है।
लय में भी-गहन-गहनतर इसमें ,
कहाँ बताओ लय न है।
गौर से देखो-शब्द ब्रह्म है ,
ब्रह्म बताओ-लयमय है !
खजुराहो में चित्र उभरते ,
ग्रीक मूर्तियां ,फ्रेंच कला।
निर्वसनाएं स्थापित करतीं ,
मानव तन की उत्स कला।
कभी-कभी विभीषिका अंकित ,
कभी यौन जीवन सन्दर्भ।
सीधा शब्द प्रयोग यहां पर ,
शालीनता से हुआ परे।
क्योंकि यहाँ पे -
उन अनुभव का ,
सतही रूप उभरता है।
सम्प्रेषण का भाव-अर्थ कुछ ,
बोझिल-बोझिल लगता है।
मन पर कम ,मस्तिष्क पर ज्यादा ,
बोझ ज़रा यह देता है।
आज की जो भी विकसित अकविता ,
सैद्धान्तिक ,व्यवहारिक है।
लय में भी-गहन-गहनतर इसमें ,
कहाँ बताओ लय न है।
गौर से देखो-शब्द ब्रह्म है ,
ब्रह्म बताओ-लयमय है !
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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