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Friday, April 28, 2017

सोचता हूँ

poem by Umesh chandra srivastava

सोचता हूँ ,सबको ले के चलूँ ,
घर ,परिवार ,साथी-संघाती सबको।
पर  फिर  ठिठक जाता हूँ ,
सबकी-अपनी सोच ,
अपना दायरा ,
अपना अनुभव ,
बातें तो वह -उसी हिसाब से करेंगे ,
मेरे मन को भाये ,
न भाये -ऐसे में ,
मैं सोचता हूँ ,
अपने विचार को मानूँ।
लेकिन लहू का संस्कार ,
क्या इसकी इज़ाज़त देगा ?
देगा -सोचता हूँ ,
ज़रूर देगा ,
मगर थोड़ा विद्रोही होने पर।
आखिर यही तो ,
किया भारतेन्दु जी ने।
भाई ने हिस्सा बटा लिया।
सोचिये -उनसा ,
उनसा संकल्पित होइए ,
तब बनेगी बात सब।
तब रच पाएंगे ,
साहित्य का नया वितान।
तब आप भी ललकारें !
शपथ लें ,मुकरें नहीं ,
अडिग रहें -साहसी योद्धा की तरह।
क्योंकि -साहसी योद्धा ही ,
बनाता है ,
संवारता है ,
प्रेरणा देता है।
संकल्प कीजिये ,
तो आ जाइये ,
संकल्प लें, और ,
चल पड़ें ,
उसी राह पर ,
जहां अपनी ज़मीन हो ,
अपना आसमान हो ,
और सिर्फ ,
अपने सपनों की हक़ीक़त हो।




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

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