poem by Umesh chandra srivastava
जहां भर की दिखती है इशरत इसी में। 
निगाहों का पैना वह पन है सुहाना ,
गिराकर ,उठाकर हो करती दीवाना। 
ज़रा होश में तो  रहो मेरी जाना ,
नहीं हमको करना मदहोशी ज़माना। 
बड़े तो सितमगर यहाँ लोग बैठे ,
नहीं कुछ मिलेगा तो तोहमत लगाना। 
मुझे फ़िक्र तेरी तुझे खुद की न हो ,
मगर मैंने जाना यह ज़ालिम ज़माना। 
कहाँ यह बना दे , कहाँ यह दिखा दे ,
तुम्हें भी तो रुसवा ये शूली चढ़ा दे। 
नहीं इसको भाता युगल प्रेम कोई ,
कहाँ इसको फुर्सत ये समझे तुम्हें भी। 
इसे बस ये आता नहीं है रहम भी ,
यह फरमान देकर करेगा बेगाना। 
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

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