poem by Umesh chandra srivastava
हे मानव ,तुम मानसरोवर में ,
विचरण करते रहते।
क्या-क्या देखा नहीं यहां पर ,
विधि का लेखा सब कुछ है।
दूर गगन में अंशुमाली ,
धरती पर उजियारी है।
हवा बहे सुन्दर से सुन्दर ,
मौसम में गुलज़ारी है।
अटखेली में बाल-बृंद सब ,
तरुण-अरुण सा डोल रहे।
तरुणाई तो भ्रम ही नहीं है ,
इसमें जो कुछ जोड़ सको।
समझो जीवन का दर्पण यह ,
संकल्पित हो आगे बढ़ो।
गर तुम चुके गरमाई में ,
नयनों के दीदारों में।
सब कुछ चौपट हो जाएगा ,
अरुणित जीवन तब क्या हो ?
जो तुम शब्द चितरक बनके ,
शब्दों के अर्थों में घुल।
मर्मों के सब अर्थ समझ के ,
वैचरिक दृष्टि धरके ,
आओगे तो लोग यहाँ पे ,
चरण बृंद सब चूमेंगे।
हे मानव ,तुम मानसरोवर में ,
विचरण करते रहते।
हे मानव ,तुम मानसरोवर में ,
विचरण करते रहते।
क्या-क्या देखा नहीं यहां पर ,
विधि का लेखा सब कुछ है।
दूर गगन में अंशुमाली ,
धरती पर उजियारी है।
हवा बहे सुन्दर से सुन्दर ,
मौसम में गुलज़ारी है।
अटखेली में बाल-बृंद सब ,
तरुण-अरुण सा डोल रहे।
तरुणाई तो भ्रम ही नहीं है ,
इसमें जो कुछ जोड़ सको।
समझो जीवन का दर्पण यह ,
संकल्पित हो आगे बढ़ो।
गर तुम चुके गरमाई में ,
नयनों के दीदारों में।
सब कुछ चौपट हो जाएगा ,
अरुणित जीवन तब क्या हो ?
जो तुम शब्द चितरक बनके ,
शब्दों के अर्थों में घुल।
मर्मों के सब अर्थ समझ के ,
वैचरिक दृष्टि धरके ,
आओगे तो लोग यहाँ पे ,
चरण बृंद सब चूमेंगे।
हे मानव ,तुम मानसरोवर में ,
विचरण करते रहते।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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