poem by Umesh chandra srivastava
अब तो सुनवाई है होनी ,
क्यों भृकुटी है तनी हुई।
जीवन के उस छोर पहर की,
कथा-कहानी खुलना है।
वह तो एकदम मुखर हो गयीं ,
एकदम से ललकार कहा !
क्यों चेहरे पर शिकन आपके ,
क्या कुछ-कुछ असंगत था !
रमे हुए जो तन-मन भीतर ,
उनको बाहर लाना है।
जन्मभूमि का राग-वाग सब ,
इस धरती पे बनाना है।
तब तो थी मुखरित सी वाणी ,
अब खामोशी ओढ़ ,पड़े।
कानूनों के जिरह चक्र में ,
मंसूबे अब बना रहे।
देखो अब क्या-क्या कहते हो ,
सत्य एक था -डट जाओ।
अब पैतर का खेल न करना ,
कला तुम्हारी यह अनमोल।
बड़े दुखी अयोध्या वासी ,
जब अतीत में जाते हैं।
वह था तो कोहराम भयंकर ,
मार्ग-मार्ग पर बंदिश थी।
नारा गूँज रहा नभ मंडल ,
जेलों में आस्था सैलाब।
बात पुरानी-विध्वंसन था ,
जायज बात नहीं थी वह।
सही बताओ सत्य ही कहना !
वहां तो दर्पण होता है !
जो भी दिखाओगे दर्पण में ,
वही फैसला आएगा।
शेष कल। .......
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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