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Wednesday, April 12, 2017

विमर्शों का दौर पुराना

poem by Umesh chandra srivastava 

विमर्शों का दौर पुराना ,
अब आया भावों का दौर !
भाव-प्रभाव में पड़ने वाले ,
अब तो नया विमर्श दिया। 

करो काम हनुमान तरह तुम ,
निस्वारथ हो ,मग्न रहो। 
जन-मन बीच रहो तुम जाकर ,
बिन आदेश के काम करो। 

स्वार्थमुक्त कैसे वह होंगे ! 
बोल दिया एजेंडे को ,
उसी विहाफ़-पर-डट जाओ ,
19 का कुछ ध्यान धरो।  

गौर से देखा जाये अगर यह ,
राम बना है कौन यहां !
मंदिर-मस्जिद राग अलपता ,
राम रमे हैं जन-मन में।  

कैसी दृष्टि दिया है भाई !
मान लिया-तुम हो उस्ताद !
बहुत दिनों से सोच रहा था ,
नया-नया कुछ आएगा ?

आखिर आया दौर नया यह ,
अब तो झूमों मग्न रहो। 
वह तो है अनमोल चितरक ,
योग-योग से तपा हुआ। 

योग का मतलब केवल जोड़ना ,
अब देखो क्या जोड़ा है !
भावों के बैकुंठ-कुंड में ,
बैठ दिशा जो बोया है। 

ऐसा, नहीं वह काम कर रहे ,
बिना साक्ष्य आरोप कहाँ ?
साक्ष्य रहेगा तब आरोपित ,
सजा-वजा सब पायेगा। 


शेष कल.......
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

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