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Sunday, April 30, 2017

मैं हूँ पाखी ,समझ रहे हो क्या

poem by Umesh chandra srivastava

मैं हूँ पाखी ,समझ रहे हो क्या ,
तुम तो भंवर-पतिंगा हो।
मत मँडराओ पास हमारे ,
जल-बर कर रह जाओगे।
मैं तो दीप हूँ ,
मेरे लौ से दूर रहो।
तुम  तो ठहरे दीवाने ,
डोल-डोल बस घूर रहे।
काम-वाम है कोई नहीं क्या ?
हर दम आके डट  जाते हो।
राहो में मेरे झुरमुट सा ,
आकर बस तुम , बस ,बस जाते हो।
मैं क्या कोई छुई-मुई हूँ ,
जो तेरी आहट से सूख जाऊं।
अपनी दृष्टि क्या रखते ?
देख-देख क्या पा जाओगे !
भंवर पतिंगे सा जीवन ,
क्यों अपनाना चाहते हो।
मन में कोई और भाव नहीं है क्या ?
एक भाव से हरदम चुस्त।
फौलादी हो ,कुछ करो ,
देश हित में कुछ बरो।
दूजी दुनिया की यह रंगत ,
स्वयं पास आ जायेगी।
फिर तुम देखो-जी भर के ,
दृष्टि पसारो-परस करो।
नेक दृष्टि रख आगे बढ़ो तुम ,
तुम पर यही भाव मेरा।
छोड़ो पीछा ,जाओ हट कर ,
सही मार्ग कुछ अपनाओ।
अपना भी हित कुछ कर लो तुम ,
और देश-समाज का भी।
 वरना तुम जाओगे वहां ,
'पास्को' लगेगा ऊपर से ,
रगड़- रगड़ खप जाओगे।
         मैं हूँ पाखी ,समझ रहे हो क्या।





उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava 

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