poem by Umesh chandra srivastava
प्रेम का काव्य लिखना बहुत चाहता।
प्रेम की सब कला से मैं महरूम हूँ।
उसका मुख है कि चंदा नहीं कह सका ,
उसके अधरों का पंखुड़ नहीं सह सका।
मुस्कुराई तो पूरा जहाँ ही हिला ,
उसको यह भी तो बातें नहीं कह सका।
प्रेम का काव्य लिखना बहुत चाहता।
वह दिवस भोर है या है तेजोपहर ,
उसके रूपों की गर्मीं नहीं सह सका।
वह मधुर रात है या कि संध्या पहर ,
उसको यह भी तो नाम नहीं दे सका।
प्रेम का काव्य लिखना बहुत चाहता।
बात आयी मिलन की पिछड़ मैं गया ,
दुनियादारी की बातों से भय खा गया।
वह तो कहती रही राज की बात है ,
पर रज़ाई उलटने से डरता रहा।
अब कहें क्या उसे सब मेरा दोष है ,
चाहे कुछ भी कहो बल नहीं कर सका।
प्रेम का काव्य लिखना बहुत चाहता।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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