फिर वही मुस्कान लेकर आ गयी हो।
फिर मुझे बेचैन करके भा गयी हो।
रूप की सागर तुम्हे मैं क्या कहूँ अब।
ढाई आखर प्रेम में समां गयी हो।
कोई तुमको प्रेम की देवी कहे है।
कोई तुमको प्रेम पूजा मान बैठा।
पर सदा से तुम बनी श्रद्धा की देवी।
समानता के डोर की पतवार तुम हो।
औ ह्रदय के भाव की उद्गार तुम हो।
फिर मुझे बेचैन करके भा गयी हो।
रूप की सागर तुम्हे मैं क्या कहूँ अब।
ढाई आखर प्रेम में समां गयी हो।
कोई तुमको प्रेम की देवी कहे है।
कोई तुमको प्रेम पूजा मान बैठा।
पर सदा से तुम बनी श्रद्धा की देवी।
समानता के डोर की पतवार तुम हो।
औ ह्रदय के भाव की उद्गार तुम हो।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
No comments:
Post a Comment