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Friday, October 7, 2016

दशहरा का मेला

दशहरा का मेला ,लगा है यह मेला।
चला जा रहा है ,यहाँ रेले पे रेला। 
कोई पैंट गांठे ,कोई जीन्स चापे। 
कोई टोपी , हैट ,कोई सूट लादे। 
चले आ रहे हैं, चले जा रहे हैं। 
अजब है रवानी ,लगाए लिपस्टिक। 
पहन हील वाली ,वह चप्पल पे चप्पल। 
खटा-खट , फटा -फट ,चली जा रही है। 
थोड़ी दूर जाते ही दिखा है दल तो। 
यह हाथी , यह घोड़ा ,यह चौकी सजी है। 
विराजे हैं उसमे अग्रज साथ लक्ष्मण। 
औ बैठी हुई बीच में जनक नंदिनी। 
छवि है छटा है ,मनोहर-मनोहर। 
लगी लाइटों की यह कैसी रंगोली। 
बिहंसते हैं चेहरे ,मुखोटे भी दिखते। 
है ठेलम है ठेला ,दशहरा का मेला। 

निकट पास मे है , कुछ महिला की टोली। 
जो आपस में करती ,हठीली ठिठोली। 
वह कहती बड़ी ही मनोहर है जोड़ी। 
सिया राम बैठे , लखन लाल हँसते। 
सभी को मटक कर , हैं हनुमान कहते। 
बोलो राम की जय ,बोलो जानकी जय। 
यही जय-जय कारों में चौकी निकलतीं। 
चमकती-चमकती कई चौकिया हैं। 
हैं दृश्यों का सागर , भरी लेके गागर। 
वह गांव की गोरी चली जा रही है। 
बहुत खूबसूरत ही चौकी सजी है। 
सभी देख मोहित 'औ' सोहित हुए हैं। 
अंगरखा लपेटे , लगा लाल चन्दन। 
ये पंडित जी तो हैं चले आ रहे हैं। 
किया आरती भी ,चढ़ावा चढ़ाया। 
लगे बाँटने वे खुशी की मिठाई। 
है बच्चे उन्हें देख करते ढिठाई। 
बिदकते हुए वह कहे जा रहे हैं । 
हे ललुआ हे कलुआ ,बहुत हो गया अब। 
अब जाओ यहाँ से नहीं मार देंगे। 
बहुत ही है मोहक यहाँ दृश्य दिखता। 
यह मेला है भाई ,दशहरा का मेला... ।  (शेष कल )


उमेश चंद्र श्रीवास्तव -




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