यह भारत देश ,यह भारत देश ,
सीता जैसी अब नारि कहाँ ?
द्रोपदी का वरन वह करती हैं।
पर रहा समर्पण वाला सच ,
वह भी तो नहीं नज़र आता।
जिसको ,जो भी भा जाता है ,
वह उससे नाता जोड़-तोड़ ,
उन्मुक्त पवन के झोके सा ,
चलतीं रहतीं हैं इधर उधर।
सैंयम नियम का भान कहाँ ,
जो भी मन भाये, रमे वहीँ ,
कुछ वक्त ठहर कर, हे मानव ,
वह ठौर बदल के गयीं उधर।
सुविज्ञ यह समझो बात जरा -
इसमें हमारी संस्कृति क्या ?
परिहास हो रहा मूल्यों का ,
चिंता किसको है इसकी भला।
जीवन तो अब है कला -कला।
क्या ऐसे में हो पायेगा ?
जीवन में सुप्रभात मधुर बेला। (शेष कल )
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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