अभिशप्त जीवन जी रहा हूँ ,जन्म से मैं पार्थ तो।
संकोच , लज्जा ,आवरण की पालकी ढोता रहा।
माँ हमारी थी मगर ,पर आंचलों से दूर था।
माँ दुग्ध से वंचित रहा ,पर लाल था इस भूमि का।
सर्वस्व देने की रही ,बस लालसा युवराज को।
पाखंड से जो छल रहा था , राज्य के अधिकार को।
झूठी शपथ , प्रतिशोध की जो अग्नि में जलता रहा।
सब कुछ लूटा कर अंत में ,जो काल से कवलित हुआ।
वह उम्र भर लड़ता रहा ,छल 'औ' प्रपंच करता रहा।
भाभी जननी का न उसे सम्मान मन में था कभी।
मेरे बलों पे पार्थ तुमसे वह सदा भिड़ता रहा।
धीरज धरम को त्याग कर ,अपमान वह करता रहा।
संकोच में , ऋणभार चलते मैं सदा खामोश था।
मामा शकुनि के घात से भी ,वह सदा अनजान था।
जो प्रेम के आवरण में , घात ही करते रहे।
निज बहन खातिर वे सदा प्रतिशोध में जलते रहे।
जो-जो सिखाया उन्होंने , वह वही सब करता रहा।
वह क्यों हुआ ? किस वास्ते ? इस अर्थ को जाना नहीं।
सर्वोच्च जीवन में सदा , निज मामा को माना सही।
अब दुखत्तर सांध्य को मैं हाँथ जोड़े हूँ पड़ा। ........ (शेष कल )
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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