मेरे क्रंदन में तु ही तू ,
निश्चल भाव की पुलकावली।
जब भी होता -एकांतिक मैं ,
तेरी पीर उहुक भरती ।
जग में केवल एक है रिश्ता,
नर-नारी का वह केवल।
बाकी रिश्ते-वहीँ से बनते ,
साथी बात पुरानी है।
और का चाहे जितना सूध-बुध ,
रखलो ,वह तो छोड़ेंगे।
उनके छूटन में लूटन है।
केवल इस रिश्ते में प्रेम।
इसे संभालो, सहज के रक्खो ,
जीवन का तुक इसमें है।
बाकि सब है खाना-पूर्ती ,
यह रिश्ता तो शाष्वत है।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
No comments:
Post a Comment