जब-जब याद तुम्हारी आती ,
तब-तब कविता लिखता हूँ। 
साँझ , सवेरे , रात , दुपहरी ,
तुमको याद मैं करता हूँ। 
आसमान में जब-जब बादल ,
उमड़-घुमड़ के छाते हैं। 
यादों का मंडल बन जाता ,
यादों में खो जाता हूँ। 
तनहा-तनहा विरला सा मैं ,
जीवन का सुख दुःख सहता। 
साथ अगर तुम जो होती तो , 
बात और कुछ हो जाती। 
पर हूँ विवश ,लाचार प्रकृति से ,
कुछ भी नहीं कह सकता हूँ। 
प्रकृति हमारी मनभावन है,
प्रकृतिमयी मैं रहता हूँ। 
सांसों में बसती बस तुम हो ,
और अचेतन मन में भी। 
चेतनता में रमी हुई हो ,
अंग-अंग 'औ' जीवन में। 
(शेष कल...)
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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