क्योंकि मैने उसको देखा ,
उसने भी मुझको है देखा।
देख-दिखने में ही सारी ,
बात बनी, बिगड़ी जाती।
सपन सजोये जो मन भीतर ,
बिखर-बिखर के खो जाते हैं।
उसका मुखड़ा सुन्दर सा कुछ ,
अब सुंदरता ,लगी नहीं।
शायद भाव हमारे भीतर ,
उसके प्रति कुछ खिसक गयी।
उसके मन में-मेरा मुखड़ा ,
अच्छा है अब भी -क्या जाने ?
मैंने अपनी बात बता दी ,
उसने तो कुछ कहा नहीं।
न जाने अब कब सुधरेंगे-रिश्ते ,
जो अटपटे हुए ।
पता नहीं वह मौसम कैसे ,
देख-दिखाने में फिसला।
अब तो उसका सुन्दर मुखड़ा ,
है अतीत की बात हुई।
न जाने कब वर्तमान में ,
उसका मुख सुन्दर होगा।
मन के भाव-विसरते,आते ,
न जाने क्या बात हुई ?
जब वह फिर से सुन्दर दीखे ,
'औ ' मन के सब भाव जगे।
तब वह रूप सलोनी कैसे ,
मुझे निहारेगी ,देखेंगे।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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