कुछ तो खास है ,
जमाना जो बना बैठा।
कुछ तो ठाठ है ,
लाइन में भी-बोल रहे जय।
शायद फकीरी का आलम ,
रहा है,कि लोग-
बोलते हैं ,सराहते है।
लेकिन प्रश्न भी करते हैं ?
नाराजगी आखिर ,
अपने से ही होती है।
नाराज होना ,
आत्मीयता का है प्रतीक।
दुत्कारना ,उलाहना देना ,
'औ' खिलाफ बोलना ,
सब तो है,
आत्मीयता का प्रतीक।
फिर गुरेज किस बात का।
सामूहिक यज्ञ में ,
जो धुआं निकलता है।
उसे कुछ प्रसाद मानते।
कुछ तो -दूर हट जाते ,
पर बंद ओठ से -
भीतर-भीतर सराहते ,
प्रफुल्लित होते ,
कहते-कुछ तो ,
हुए विकार दूर।
चाहे धुंए से -
आँखों में -
कुछ धुन्धलाता भरी छाया हो,
पर तासीर तो -है दमदार।
संस्कार में कुछ ,
नए संयोजन के लिए ,
स्फूर्ति तो आई।
बहानों से निजात तो मिला।
आशा का कुछ संचार तो हुआ।
वरना हम सब मौन ,
चुपचाप उनके कारनामे ,
देखते ,सुनते 'औ' -
निठल्ले पालतू ,
जानवर की तरह ,
मालिक के प्रति समर्पित हो ,
उसी की सुरक्षा में ,
रहते तल्लीन।
कुछ तो बात है ,
जिसे बोलने में -हम ,
हिचकिचा रहे हैं।
समझने में शरमा रहे हैं।
'औ' कहने में सकुचा रहे हैं।
हुआ तो फैसला ,
देश हित में ही तो है।
अब देखना है -
हमारे समवेत-बाजुओं में ,
कितना दम ख़म है।
इसे स्वीकारने या ,
इसे नकारने में ,
बहरहाल काम तो ठीक है।
दबी जुबान से ही सही ,
अंतरमन कह तो रहा है।
'औ' देखिये विश्व के ,
पटल पट पर ,
मुखरित तो हो रहा है ,
भारत का नाम ,
भारत की कीर्ति ,
'औ' भारत का सम्मान।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव-
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