रणबांकुरों कहानी आयी,जरा विचारो मन भीतर।
भाव जगा कर बोल रहे वो,छूमन्तर कुछ दिन में है।
अरे बताओ वीर बांकुरों ,ऐसा भी क्या होता है?
अपना पैसा जो कुछ संचय ,कर हम बैंकों में है डाले । 
उसे निकलने के खातिर ही,हम पब्लिक लाइन में पीटते । 
कहाँ गयी वह बोली भाषा ,कहाँ गया वह प्रवाहित रक्त।
कब तक बाँकुर तुगलक बातें ,सुन कर हम सब मौन रहें ? 
क्यों अपना अधिकार गवांकर,मौन धरे चुप बैठे हो ?
लोकतंत्र की मर्यादा है बातें जन-मन रख सकते । 
वरना वह तो मारा खपा कर ,रेटिंग में बढ़ जायेंगे। 
अपनी मौलिक चिंतन धारा ,थोप वहां जो बैठे हैं। 
अपनी राजनीती की गोटी ,सेक कुर्सी में ऐठें हैं। 
हमसे कहते धैर्य धरो तुम ,अपना संसद मौन रहे। 
उनके साथी जगह-जगह पर ,अपनी वाणी बोल रहे। 
ऐसा भी कहीं होता बाँकुर ,वो बोले हम मौन रहें ?
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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