मंथन करके अमृत धारा,
निकल रहा अंतर से।
उसे बढाओ पालो ,पोसो ,
उससे है सब विकसित।
बीज पड़ा तब अंकुर फूटा ,
गरल-तरल से ऊपर।
बूँद-बूँद से रूप बना तब ,
एक पदार्थ सा अविरल।
तरल-गरल जो भी तुम मानो ,
तत्व एक ही होता।
स्रोता बहता हुआ दीखता ,
जड़ पदार्थ सा जैसा।
पर जड़ में जो बुद-बुद होता,
वही अंश जीवन का।
पक-पक करके भीतर-भीतर ,
पुलक शरीर सा बनता।
प्राण तत्व कुल भूषण सा ,
तन ढांचा वह संवरता।
लुढ़क-पुढ़क कर तब ,
जीवन सा अंकुर बेल निकलता।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
No comments:
Post a Comment