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Thursday, December 15, 2016

मंथन

मंथन करके अमृत धारा,
निकल रहा अंतर से। 
उसे बढाओ पालो ,पोसो ,
उससे है सब विकसित। 

बीज पड़ा तब अंकुर फूटा ,
गरल-तरल से ऊपर। 
बूँद-बूँद से रूप बना तब ,
एक पदार्थ सा अविरल। 

तरल-गरल जो भी तुम मानो ,
तत्व एक ही होता। 
स्रोता बहता हुआ दीखता ,
जड़ पदार्थ सा जैसा। 

पर जड़ में जो बुद-बुद होता,
वही अंश जीवन का। 
पक-पक करके भीतर-भीतर ,
पुलक शरीर सा बनता। 

प्राण तत्व कुल भूषण सा ,
तन ढांचा वह संवरता। 
लुढ़क-पुढ़क कर तब ,
जीवन सा अंकुर बेल निकलता। 



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

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