बड़े मजबूर हम तो हैं ,यही कहते समझ कर के। 
 
हुआ जो फैसला ,अच्छा ,बहुत ही अच्छा लगता है। 
है यह तो बात गर पक्की ,जरा फिर से बता देना। 
कसम खा के मुकर जाना ,शरीफों की तो आदत है। 
इसी बस खेल में दुनिया जुटी ,दुनिया बेपानी है। 
बताओ सत्य यह बातें ,तुम्हे क़ुरबानी क्यों चाहिए? 
भला तो  कर भी कैसे सकते हो ,लोगों पे मेहरबानी। 
पुरानी बात है तुम तो, पुराने लोग जो ठहरे। 
जुगत से बात अपनी रखने में, तुम तो ,तो माहिर हो। 
कसम से सच करो, किस्सा कहाँ ,क्या बेजुबानी है ?
बहस खमोश रह कर सुन भी लेते हो सदन बैठे। 
सभा में ठोक डंका , मुखड़ों पे अजीब रवानी है।  
तेरा कुनबा ,तेरा इतिहास ,जनता को जुबानी है। 
बड़े ही प्रेम से तुम तो सभी से ,यह कहाते हो। 
धरम  के तुम पुरोधा हो ,धरम से बात करते हो। 
जुबानी सब तुम्हारा तो ,जुबानी पे ही चलता है। 
कहो तुम कुछ ,सिपाही कुछ करे ,आदत पुरानी  है। 
ये जन को क्या कहे ,सब कुछ तुम्हारी मेहरबानी है ?
उमेश चंद्र श्रीवास्तव- 
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