सर्द हवाएं ,बौराये मन ,गलन बढ़ी है।
सर्द निशा में शाल ,दुपट्टा ओढ़ खड़ी है।
सहसा झोंका तेज हुआ ,बयार बौराई ,
इधर तनों में गर्म-मर्म की ऋतु गरमाई।
सर्द हवाएं ,मन बौराये ,कैसे सुलझे ,
खड़ी सर्द मौसम में -बाहर बरामदे में ,
प्रिय पाहुन ,प्रियतम उसके -कब आएंगे।
कब उसके तन-मन की उठती प्यास बुझेगी।
सर्द हवाएं क्या लेंगी ,मौसम है ऐसा ?
मिलन-मिलन का भाव सर्द में बढ़ता जाता।
क्या कर जाये प्रीत की रीति सुलगती ,बिहवल ,
और देखती चन्दा को-चकोर बनी वह।
उसके चन्दा कब आएंगे-भान नही है ,
अब तो लगता उसको-मर्यादा का ध्यान नहीं है।
तभी तुनुक कर वह बोली -दुहिता तुम जाओ।
रात बहुत हो गयी -जाके अब तुम सो जाओ।
वह क्या जाने -उसकी दुहिता अट्ठारह आने ?
समझ रही थी माँ के भाव -मगर क्या बोले ?
है मर्यादा तोड़ नहीं सकती वह परतें !
और उधर माँ -बिरह अग्नि को धीरे-धीरे ,
शांत करे -कैसे वह, कुछ समझ न पायी।
तभी दूर-बाहर से कुछ आवाज है आयी ,
तपक दौड़ -वह भागी बहार जाकर देखा।
प्रिय प्रियतम का मुखड़ा, सजा-सजा सा दिखता।
बोली गलन बहुत है -जल्दी अंदर आओ ,
फिर वह बोली-बेटी से तुम जा सो जाओ।
.
.
.
.
शेष कल.........
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
No comments:
Post a Comment