आंसू छलका ,बीत राग की ,
याद पुरानी आयी है।
सुधियों का वो मंजर-आलम ,
बरबस कौंध गया मन में।
तन भी शिथिल हुआ अब कुछ तो ,
पर मन में बिहसन वह है।
रूप दुलारी जब आयी थी ,
मेरे घर 'औ' आंगन में।
भावों के सब पंख उगे थे ,
पछुआ मन बौराया था।
सुबह-दुपहरी, शाम-भोर की ,
क्या सुध थी ,हम दो जाने ?
हरदम मन परसन को आतुर ,
लोक -लाज का भय भी था।
पर वह रूप सलोनी चातुर ,
इधर-उधर मौका ताड़े -
आ जाती पहलु मेरे।
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.......शेष कल
उमेश चंद्र श्रीवास्ताव-
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