सर्द हवाएं , बौराये मन , गलन बढ़ी है।
सर्द निशा में शाल ,दुपट्टा ओढ़ खड़ी है।
चेहरे पर कुछ सुर्ख ,मगर लालीपन भी है।
अधरों पर मुस्कान ,खिली थी दोनों ऑंखें।
गालों पर भी चमक ,तनों में दमकम भी था।
और इधर से खड़ा देखता -मैं टुक-टुक था।
सर्द हवाओं से शालों का मंथर उड़ना ,
और उठा कर बाहों से -उसे फिर लपेटना।
क्रिया इसी में व्यस्त मगर कुछ अकुलाई थी।
अंदर की चाहत सिमट बहार आयी थी।
उसके दोनों कर -किसी का आहट पाकर।
करने को बेचैन ,उसे आलंगित करने।
उधर गगन में दूर चाँद की आंख-मिचौली।
इधर सघन था मन भीतर प्रेमांकुर का पुट।
बहुत सहेजा मगर गलन से तन-मन कँपा।
बहार से थी ठण्ड ,अगन मन भीतर अग्नि।
कैसे उसे बुझाये -इसी धुन में थी पगली।
सर्द निशा में शाल ,दुपट्टा ओढ़ खड़ी है।
चेहरे पर कुछ सुर्ख ,मगर लालीपन भी है।
अधरों पर मुस्कान ,खिली थी दोनों ऑंखें।
गालों पर भी चमक ,तनों में दमकम भी था।
और इधर से खड़ा देखता -मैं टुक-टुक था।
सर्द हवाओं से शालों का मंथर उड़ना ,
और उठा कर बाहों से -उसे फिर लपेटना।
क्रिया इसी में व्यस्त मगर कुछ अकुलाई थी।
अंदर की चाहत सिमट बहार आयी थी।
उसके दोनों कर -किसी का आहट पाकर।
करने को बेचैन ,उसे आलंगित करने।
उधर गगन में दूर चाँद की आंख-मिचौली।
इधर सघन था मन भीतर प्रेमांकुर का पुट।
बहुत सहेजा मगर गलन से तन-मन कँपा।
बहार से थी ठण्ड ,अगन मन भीतर अग्नि।
कैसे उसे बुझाये -इसी धुन में थी पगली।
(शेष कल........)
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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