सर्द हवाएं ,बौराये मन ,गलन बढ़ी है।
सर्द निशा में शाल ,दुपट्टा ओढ़ खड़ी है।
पिता समझते थे बेटी अब तो हुई सायानी।
पर यह बोझिल पत्नी-कर रही नादानी।
दुहिता ने आवाज पकड़ ली -माँ से बोली -
मम्मी तुम पापा को कमरे में ले जाओ।
वहीँ तुम्हारा -तुम दोनों का खाना हूँ लाती।
बेटी कह कर चली गयी-दूजे कमरे में ,
माँ झट दौड़ पड़ी -लिपटी अपने प्रियवर से।
उधर प्रिया का भाव समझकर-प्रियवर बोले ,
धीरज धरो -समय होगा अनुपम हितकारी।
क्यों उतावली बनी -जरा कुछ पल तो ठहरो।
नहीं चलेगी तुरन्त-फुरंत यह मेहरबानी।
फिर क्या था ?
सब वही हुआ जो प्रिय को प्रिय था।
पिता समझते थे बेटी अब तो हुई सायानी।
पर यह बोझिल पत्नी-कर रही नादानी।
दुहिता ने आवाज पकड़ ली -माँ से बोली -
मम्मी तुम पापा को कमरे में ले जाओ।
वहीँ तुम्हारा -तुम दोनों का खाना हूँ लाती।
बेटी कह कर चली गयी-दूजे कमरे में ,
माँ झट दौड़ पड़ी -लिपटी अपने प्रियवर से।
उधर प्रिया का भाव समझकर-प्रियवर बोले ,
धीरज धरो -समय होगा अनुपम हितकारी।
क्यों उतावली बनी -जरा कुछ पल तो ठहरो।
नहीं चलेगी तुरन्त-फुरंत यह मेहरबानी।
फिर क्या था ?
सब वही हुआ जो प्रिय को प्रिय था।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
No comments:
Post a Comment