स्त्री के उस बिम्ब को-
उभारो-जहाँ बसता है,
मानव मन-जो ,
तरह-तरह के लुभावन से ,
विवश कर देता है स्त्री को।
अपनी अस्मिता को ,
न्योछावर कर ,
ठग जाने के बाद ,
उसे अहसास होता है ,
कि वह तो बेचारी ,
बेचारी ही रही।
आधुनिकता की चकाचौंध में ,
तरह-तरह के मानदंडों से ,
उसे ठग जा रहा ,
खामोश-
समाज रुपी चादर को ओढ़े ,
आखिर कब तक,
उसे दौड़ाएगा ,
यह पूरी दुनिया का ,
आधा हिस्सेदार।
कब तक !कब तक !! कब तक !!!
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