कुछ समझौते करने पड़ते ,
मुख से निकल गयी कुछ बातें,
उसको अमल में धरने पड़ते।
हालातों के समय चक्र में ,
कई मुखौटे दिख जाते हैं।
किसको अपना कहें ,बेगाना ,
सब तो बात पे अड़ जाते हैं।
वह जो निर्णायक बन बैठे ,
उनको भी सब पता नहीं है।
बतलाते केवल वह हैसियत,
अपना क्या हैं ,चुप रहते हैं?
समय चक्र की धुरी बिंदु पर ,
हालातों से सब हैं खिसकते।
किएको अपना माने यहाँ पर ,
सब तो चतुर परिंदे निकले।
चलिए अब क्या जो होना था ?
होकर वह अब सफल हुआ है।
वह तो अपना अहम् भरेंगे ,
हम रिरियाते घूमे ऐसे।
.........शेष कल
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
No comments:
Post a Comment