सुध-बुध रात बहुत थी आयी ,
भोर भये सब पंख उड़े।
निशा पहर की सौगातों में ,
मुखड़ा खिला-खिला देखा।
भोर भयी तो सब कुछ बिखरा ,
सारी रात रही तनहाई ।
तुम भी तो निर्मोही ऐसे ,
दिन में फुर्र ,रात को आते।
दिवस पहर में व्यस्त रहे हम ,
रात में रहती तनहाई ।
तनहा जीवन ,तनहा हम हैं ,
तुमने तो कुछ समझा नहीं।
सोचा गर होता भी थोड़ा ,
तो तुम यूं कैसे जाते?
तुम तो सजन बड़े बेदर्दी ,
तन को व्याकुल छोड़ गए।
बोलो कब-तक सुध लोगे तुम ,
अब तो शीतमयी मौसम।
आओ जल्दी कुछ तो कम हो ,
अग्निशिखा की तरुणाई।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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