तुम जब आती मन के भीतर ,
भाव जगा ,जग जाता है।
बौराये मन में तब थोड़ा ,
बहुत संतुलन आता है।
तेरे आने की आहट तो,
न जाने कैसे हो जाती।
तू तो बसती ह्रदय पटल के ,
भीतर उस गलियारे में।
जहाँ पे केवल प्रभु अर्पण है ,
और नहीं कुछ है दूजा।
न जाने यह सूखा मौसम ,
कैसे हो जाता गुलजार।
तू जब आती मन की तलैया ,
कम्पन-कम्पित हो जाता ।
तुम तो मधुर सुहावन बदली ,
जब आती छा जाती हो।
बरबस मेरे मन दर्पण में ,
रास हिलोरे लेता है।
न जाने उसकी भी महिमा ,
कितनी सुदृण सुहानी है।
जब भी मिलते दो-दो प्राणी ,
नयी कहानी बन जाती।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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