छिटक चांदनी बेला में,गंगा के तट पास खड़ी।
सुदृढ़ बदन की अटखेली में ,सब कुछ सहज-सहज दिखा।
प्राची ओर किये मुख करके ,खड़ी रही योगी मुद्रा।
जैसे लगता वह चकोर बन ,चन्दा को निहार रही।
मगर उधर बदल राग में ,चन्दा की अटखेली है।
पछुआ से थोड़ी बयार का ,झोका थोड़ा मध्यम था।
लेकिन स्थिर खड़ी रही वह ,एकटक चन्दा देख रही।
शायद वसुधा वाले चन्दा ने ,उसको कुछ दर्द दिए।
अवचेतन मन की पीड़ा से ,वह सुध-बुध सब खोये रही।
मगर टीस कुछ-कुछ रुक आती,एक पथिक था देख रहा।
बढ़ा,कहा-बोला धीरे से ,क्यों आतुर हो मन मारे ?
पलटी सहज हुई 'औ' बोली-प्रीतम मेरे बौराये।
कहती थी तुम चन्दा ला दो ,वह बोले चन्दा को देखो।
इसीसलिए मैं एकटक होकर चन्दा को निहार रही।
खड़ा पथिक धीरे से बोला-चन्दा तो निर्मोही है।
कितना उसे चकोर चाहती ,पर वह अपने धुन में है।
उसी तरह से पुरुष सभी हैं ,अपनी धुन में ही रहते।
कहाँ हो भटकी, जाओ यहाँ से ,सर्दमयी यह मौसम है।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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