माना कुछ हक़ देकर मैंने,
न कोई अपराध किया।
पर वह बिहसे ,मन ही मन में ,
सपनों का संसार रचा।
उनके मन में क्या बातें हैं ,
मैं तो कुछ भी न जानूँ ?
मैंने तो अपनाया उनको ,
वह क्या जुड़ पाए हमसे।
मौखिक बातों में तो-उनने ,
हमें बड़ा अपना माना।
पर क्या हक़ीक़त में भी-उनने ,
हमें बसाया मन भीतर।
यह तो बात समय आने पर ,
खुद ही खुद खुल जाएगी।
मैं तो बौराया मन ठहरा ,
बहुत गए ,ये भी लूटें।
पर मैंने दृढ़ता से सारे ,
बात,संकल्प किये हैं तय।
उनके मन में क्या संकल्पित ?
वो जाने 'औ' वह जाने।
मेरे मन में श्याम पटों का ,
कोई भी तो धुआं नहीं।
क्या उनके मन में भी ऐसा ,
भाव जगा-यह वो जाने ?
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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