प्रश्न-
बाबुल तेरे घर की बिटिया मैं ,
मेरी ही बिदाई क्यों करते।
बेटों को घर में ही रखते ,
बेटी को कहे पराया धन,
समझे -बरसों से - ही करते ,
अब आया है यह युग बाबुल।
फिर भी तुम -पुराने क्यों बनते।
हर ओर बराबर की बातें,
इस मूल बात पर क्यों खिसके ?
मैं रोती नहीं बस कहती बाबुल,
मेरा भी हक़ तेरे चौखट पे।
बेखटके बेटे क्यों रहते ?
बेटी की विदाई क्यों करते ?
उत्तर-
बेटी तुम कहती ठीक मगर ,
दुनियादारी भी कुछ होती।
जो रीति- रिवाज चले आये ,
उनको कैसे मैं तोडूंगा।
तुम बात सही कहती बेटी ,
मैं इस बिंदु पर सोचूंगा।
अपने सब भाई-कुटुंब से ,
धर्मों के धर्म धुरंधर से,
सबसे मैं प्रश्न यह पूछूँगा।
बेटी तुम मेरी प्राण सही,
'विमर्श' दिया मैं सोचूंगा।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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