बचपन में अबोध रही जब,
पिता हमारे दुलराते।
कहते-प्यारी-प्यारी बिटिया ,
तू तो साँस बनी मेरी।
कल अपने से विलग करूंगा ,
मन तो बोझिल होगा ही।
आज पता नहीं ,वह तो मुझसे-
बात कहाँ ,देखते नहीं !
मैंने सोचा निज मन भीतर ,
कौन गलत जो बात हुई।
मेरे पिता -मेरे जन्मदाता ,
मुझसे दूरी करे हुए।
'प्रेम' करना गर बुरा काम है ,
तो फिर प्रेम की महिमा क्यों?
क्या राधा ने, क्या मीरा ने ,
या सुभद्रा 'औ' रुक्मणी ने भी ,
प्रेम किया था इस जग में ?
उनसे कोई अलग नहीं है ,
फिर क्यों-अब होती बातें ?
क्या हो सुखद , अगर सब कोई ,
प्रेम शब्द को अपनाएं।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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