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Tuesday, January 17, 2017

भ्रात प्रेम का नया समर्पण

भ्रात प्रेम का नया समर्पण ,
पुत्र विरासत ही पाता है।
गर यह काम खुदी कर देते ,
भ्रात दृष्टि में दोषी होते।

किया पैतरा अद्भुत भइया ,
माना राजनीती के पंडित।
खण्ड-खण्ड कुछ नहीं हुआ भी ,
फिर भी राजतिलक वह पाया।

अब तो दोनों हाथ में लड्डू ,
भ्रात प्रेम पर अविरल वाणी।
पुत्र विरासत खुद ले बैठा ,
क्या अब करें ,दुखी हैं  भाई?

अब जो कहो ,करें हम आगे ,
धागे रक्त के शाश्वत होते।
भ्रात प्रेम की सीमा हद तक ,
टुक-टुक देखें 'औ' करें क्या ?

अब बतलाओ जुगती क्या है ?
कैसे नैया पार लगेगी।
आखिर पुत्र ,पुत्र ही होता ,
पर तुम भाई परम् प्रिय हो।

तुम्हें समर्पण भ्रात प्रेम है ,
सब न्योछावर भ्रात प्रेम है।
हक-हुकूक सब चला गया अब ,
वामप्रस्थ का मार्ग धरें हम !






उमेश चंद्र श्रीवास्तव -

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