हम सब सीधे परिंदे ठहरे ,उनको देख रहें हैं।
वह बहलाते , वह फुसलाते ,हमको खूब रिझाते हैं।
कहते हैं जन हमको प्यारे , हम जन-जन के हैं न्यारे।
लोग ज़रा आगे बढ़ पूछो-कौन कला के मालिक वो।
मौका पड़ता रो देते हैं ,तन्हा में गाली देते।
मुखड़ा उनका विविध रूप है ,सहमें या डर जायें हम।
आके कहते हमने तुमको ,नई दिशाएं ही दी हैं।
कौन दिशा की भटकन बेला ,यह तो उनकी कला-कला।
आज गए तो फिर आएंगे ,सपनों का गुच्छा लेकर।
मत भरमों इन कला-कला पर,ये तो केवल सौदागर।
सौदा करने ये आएं हैं ,सपने छलने ये आये।
इनपे कभी भरोसा बंधू ,नहीं -नहीं तुम न करना।
वरना छलिया छल जायेंगे ,तेरे सब अरमानों को।
अपनी ढपली ,अपनी रागें ,अपनी बात सराहेंगे।
दूजे को नीचा दिखलाकर अपना ताली बजायेंगे।
अब तुम निर्णय खुद ही कर लो ,सपने तो रह जायेंगे।
लूट भगेंगे ऐसे परिंदे , कुर्सी पे इतरायेंगे।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
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