poem by Umesh chandra srivastava
मैं अयोध्या हूँ ,
तुलसी बाबा ने मंडित किया मुझे।
राम अवतरित हुए ,
मेरे ही प्रांगण में।
पर न जाने क्यों ?
सदियों बाद-जन-मन का अनुराग ,
मेरे प्रति छलछलाया।
अच्छा लगता है ,
जब लोग मुझे ,
राम जन्म भूमि का,
असर वाला स्थान मानते हैं।
पर क्या करूं ,मैं तो अमूर्त हूँ ?
निष्प्राण हूँ।
जन-जीवन का साक्ष्य हूँ।
समय के साथ-सदैव रहता हूँ ,
मेरा अपना अस्तित्व कहाँ है ?
मैं लोगों के माध्यम से ही ,
अपनी जीवन्तता का ,
अनुभव करता हूँ।
पर मुझे याद है ,
राम जन्म भूमि पर ,
बाबरी मस्जिद भी बनी थी ,
तुलसी बाबा उस दुआर पर रहे ,
जहाँ दोनों सम्प्रदाय की ,
आस्था का अटूट संगम है।
पर पता नहीं क्यों ?
पिछले दो -चार दशकों से ,
मैं मथ रहा हूँ।
मैं अयोध्या हूँ ,
तुलसी बाबा ने मंडित किया मुझे।
राम अवतरित हुए ,
मेरे ही प्रांगण में।
पर न जाने क्यों ?
सदियों बाद-जन-मन का अनुराग ,
मेरे प्रति छलछलाया।
अच्छा लगता है ,
जब लोग मुझे ,
राम जन्म भूमि का,
असर वाला स्थान मानते हैं।
पर क्या करूं ,मैं तो अमूर्त हूँ ?
निष्प्राण हूँ।
जन-जीवन का साक्ष्य हूँ।
समय के साथ-सदैव रहता हूँ ,
मेरा अपना अस्तित्व कहाँ है ?
मैं लोगों के माध्यम से ही ,
अपनी जीवन्तता का ,
अनुभव करता हूँ।
पर मुझे याद है ,
राम जन्म भूमि पर ,
बाबरी मस्जिद भी बनी थी ,
तुलसी बाबा उस दुआर पर रहे ,
जहाँ दोनों सम्प्रदाय की ,
आस्था का अटूट संगम है।
पर पता नहीं क्यों ?
पिछले दो -चार दशकों से ,
मैं मथ रहा हूँ।
शेष कल...
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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