poem by Umesh chandra srivastava
तुकबंदी गढ़ते हैं लोग।
बिम्ब बनाते तर्कमयी वह ,
उसमें ही सब बात कहें।
अब देखो-अकविता कितनी ,
मोहक-सोहक होती है।
उसने-उसका रूप बनाया ,
उसमें मढ़ा प्रतीक नया।
देखो-'जूड़ा' हुई स्टेपनी ,
मुखड़ा चन्दा गढ़ा-गढ़ा।
तुम्ही बताओ उस चन्दा में ,
दाग सदा एकाक रहता।
क्या ऐसी स्त्री भी अब है ,
दागमयी अवगुंठन में ?
उसका रूप सलोना कह कर ,
दागदार दृष्टि उकेरी।
कहाँ रूपसी अब पहले सी ,
छल-प्रपंच से दूर रही।
अब छलिया ही दृष्टि उभरती ,
नारी पुरुष सामान हुए !
तुम्ही बताओ ऐसा सम्भव ,
कभी नहीं हो सकता है !
नारी शिशु को गर्भ में रखती ,
पुरुष हमेशा उड़ता पंछी।
नारी में ठहराव-विराम है ,
पुरुष कहाँ एक डाली पर !
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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