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Wednesday, March 15, 2017

अब तो कविता हुई अकविता

poem by Umesh chandra srivastava 

अब तो कविता हुई अकविता ,
 तुकबंदी गढ़ते हैं लोग। 
बिम्ब बनाते तर्कमयी वह ,
उसमें ही सब बात कहें। 
अब देखो-अकविता कितनी ,
मोहक-सोहक होती है। 
उसने-उसका रूप बनाया ,
उसमें मढ़ा प्रतीक नया। 
देखो-'जूड़ा' हुई स्टेपनी ,
मुखड़ा चन्दा गढ़ा-गढ़ा। 
तुम्ही बताओ उस चन्दा में ,
दाग सदा एकाक रहता। 
क्या ऐसी स्त्री भी अब है ,
 दागमयी अवगुंठन में ?
उसका रूप सलोना कह कर ,
दागदार दृष्टि उकेरी। 
कहाँ रूपसी अब पहले सी ,
छल-प्रपंच से दूर रही। 
अब छलिया ही दृष्टि उभरती ,
नारी पुरुष सामान हुए !
तुम्ही बताओ ऐसा सम्भव ,
कभी नहीं हो सकता है !
नारी शिशु को गर्भ में रखती ,
पुरुष हमेशा उड़ता पंछी। 
नारी में ठहराव-विराम है ,
पुरुष कहाँ एक डाली पर !



उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

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