poem by Uesh chandra srivastava
माँ लेती है शिशु की बलइया।
शिशु गोदी में-
जल में 'कर' कर ,
किलकारी मारे, छप-छप खेले।
देख दृश्य यह ,
माँ अंतर्मन -पिता करे -
अट्टहास सुखइया।
भीतर से माँ का स्वर फूटा ,
धन्य हुई मैं, मातृ सुखों से ,
इस जग में मैं ,
धन्य हुई हूँ।
मातृ सुखों से अभिसिंचित हो ,
सब बच्चों की लेती बलइया।
नदियों में छप्पक-छप्प-छइया।
पिता छत्र है ,माँ है भूमि ,
भूमि बिन सब कहाँ खड़े हों।
छत्र बिना भी जग है अधूरा ,
दोनों से परिपूर्ण बने यह ,
जग की महिमा, जगदीश्वर को ,
नमन करे हम ,जाएँ तलइया।
नदियों में छप्पक-छप्प-छइया।
रक्तबीज शक्ति की महिमा ,
शिशु होता है माँ की गरिमा।
उससे ही सम्पूर्ण है नारी ,
वरना सुख का छोर कहाँ है।
माँ कहती-उसकी ता-तइया ,
सुन के मन ,सुख पाता भइया।
जग की पूरी सृष्टि विधा में ,
यह पल तो अनमोल सुखइया।
नदियों में छप्पक-छप्प-छइया।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Uesh chandra srivastava
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