poem by Umesh chandra srivastava
जो रमा हुआ है सब में।
मैं वही राम हूँ ,
उसी का मूर्तकार स्वरूप।
जो जगत में है विख्यात ,
दशरथ सुत के रूप में।
कौशल्या की कोख से ,
अवतरित-मैं वही राम हूँ।
इस जग में ,
मेरा कर्म क्षेत्र क्या रहा ?
बताने की जरूरत नहीं।
बस दुःख इतना है कि ,
लोग मेरे चरित्र गाते हैं ,
सुनाते हैं।
उससे लोगों को रिझाते हैं।
पर अमल में नहीं लाते।
अमल में लाएं तो ,
वास्तव में-राम राज्य आएगा !
लोगों को लुभायेगा ,
हर्षाएगा , और -
प्रेम की परस्परता बढ़ाएगा।
पर क्या करूं ?
मैं आज भी रमा हुआ हूँ ,
पर लोग नहीं समझ पाते।
उनके भीतर जो तीव्रतर है।
जिसे वह किसी प्रेरित भाव से ,
कुचल देते हैं।
मैं वही तीव्रतर भाव हूँ।
मेरे उस भाव को ,
बाहर निकाल ,
उसमें रमण करना ,
सुखद होगा।
पर क्या करूँ ?
लोगों को पता होना चाहिए ,
जो शक्ति का संचार है।
जो शक्ति पुंज है।
वह वही तीव्रतर भाव है ,
जिसे लोग भीतर ही भीतर
दबा देते हैं।
उस भाव का संचरण जरूरी है।
बिना उसके कुछ नहीं।
अभिलाषाओं के समुद्र पर ,
बैठा जीव।
कब समझेगा मुझे !
कब रमें हुए भाव को ,
मनन ,चिंतन कर ,
व्यवहार में लाएगा।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
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