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Thursday, March 30, 2017

मैं राम हूँ

poem by Umesh chandra srivastava 

मैं राम हूँ ,
जो रमा हुआ है सब में। 
मैं वही राम हूँ ,
उसी का मूर्तकार स्वरूप। 
जो जगत में है विख्यात ,
दशरथ सुत के रूप में। 
कौशल्या की कोख से ,
अवतरित-मैं वही राम हूँ। 
इस जग में ,
मेरा कर्म क्षेत्र क्या रहा ?
बताने की जरूरत नहीं। 
बस दुःख इतना है कि ,
लोग मेरे चरित्र गाते हैं ,
सुनाते हैं। 
उससे लोगों को रिझाते हैं। 
पर अमल में नहीं लाते। 
अमल में लाएं तो ,
वास्तव में-राम राज्य आएगा !
लोगों को लुभायेगा ,
 हर्षाएगा  , और -
प्रेम की परस्परता बढ़ाएगा। 
पर क्या करूं ?
मैं आज भी रमा हुआ हूँ ,
पर लोग नहीं समझ पाते। 
उनके भीतर जो तीव्रतर है। 
जिसे वह  किसी प्रेरित भाव से ,
कुचल देते हैं। 
मैं वही तीव्रतर भाव हूँ। 
मेरे उस भाव को ,
बाहर निकाल ,
उसमें रमण करना ,
सुखद होगा। 
पर क्या करूँ ?
लोगों को पता होना चाहिए ,
जो शक्ति का संचार है। 
जो शक्ति पुंज है। 
 वह वही तीव्रतर भाव है ,
जिसे लोग भीतर ही भीतर 
दबा देते हैं। 
उस भाव का संचरण जरूरी है। 
बिना उसके कुछ नहीं। 
अभिलाषाओं के समुद्र पर ,
बैठा जीव। 
कब समझेगा मुझे !
कब रमें हुए भाव को ,
मनन ,चिंतन कर ,
व्यवहार में लाएगा। 




उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava

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