poem by Umesh chandra srivastava
काश ! कविता के दो पैर होते ,
और वह सड़क की धारा को,
माप कर चल पाती।
काश ! कविता के दो हाथ होते ,
जो सड़क पर अनियंत्रित वाहनों को ,
अपने हाथों से ढकेल पाती।
काश ! कविता की दो ऑंखें होती ,
जो सड़क पर अनियंत्रित लोगों को ,
घूर सकती।
काश ! कविता की नाशिका होती ,
जो सड़क की सड़ांध ,बदबुओं को ,
करीने से महसूस कर पाती।
काश !कविता के पास होती ,
श्रवण शक्ति ,
जो सड़क की चिल्ल-पों सुन पाती।
लेकिन क्या किया जाये ?
अब तो कविता-
बिन हाथ ,पैर ,आँख ,कान के हो गयी।
जो मन चाहा ,लिख दिया।
सन्दर्भ-व्याख्या-क्या पता ?
रजाई में दुबक कर लिख डाली ,
अँधेरे की कविता।
नदी में डुबकी लगा ,
लिख डाली रोमानिया की सविता।
कहाँ रहे अब वह बिम्ब , प्रतिमान ,
जो समाज को झकझोरे।
कहाँ रहा वह अडिग स्वर ,
जो अडिग योद्धा सा खड़ा हो।
सबकुछ गड्डम-गड्ड।
लिख दिया कुछ हँसाने के लिए ,
भीड़ जुटाने के लिए।
उमेश चंद्र श्रीवास्तव -
poem by Umesh chandra srivastava
सही कहा
ReplyDeleteबहुत खूब आदरणीय कविवर्। इसमें एक बात और लिख दीजिये जितने पढ़ने वाले नही उतने लिखने वाले हो गए। देखें तो भाषा बढ़ रही है पर कविता अपना स्वरूप गँवा विद्रपता की ओर बढ़ रही है। सार्थक रचना। हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteकविता के हाथ पैर मुँह कान सब होते हैं परंतु समाज ही संवेदनहीन होता जा रहा शायद इसलिए कवि के सारे भाव शाब्दिक ढेर हो रहे हैं।
ReplyDeleteअंतर्मन को झकझोरती कविता।
सादर।
काश कविता के दो हाथ होते
ReplyDeleteजो सड़क पर अनियंत्रित वाहनों को अपने हाथों से ढकेल पाते
काश कविता की श्रवणशक्ति होती
बेहतरीन विचारत्मक प्रस्तुति